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Question 1 of 10
1. Question
1 points
अधिगम के दो प्रकार हैं:
Correct
Explanation:
******अधिगम के दो प्रकार आगमन एवं निगमन हैं
आगमन विधि (Inductive Method):
इस विधि में प्रत्यक्ष अनुभवों, उदाहरणों व प्रयोगों का अध्ययन कर नियम निकाले जाते हैं
ज्ञात तथ्यों के आधार पर उचित सझबुझ से निर्णय लिया जाता है।
इस विधि में शिक्षक बालकों के सामने पहले उन्हीं के अनुभव क्षेत्रों से विभिन्न उदाहरणों के संबंध में निरीक्षण, परीक्षण तथा ध्यानपूर्वक सोच-विचार करके सामान्य नियम अथवा सिद्धांत निकलवाता है।
इस प्रकार आगमन विधि में विशिष्ट उदाहरणों द्वारा बालकों को सामान्यीकरण अथवा सामान्य नियमों को निकलवाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता हैं।
आगमन विधि के शिक्षण सूत्र–
प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर (From Direct Instance to Indirect)
स्थूल या मूर्त से सूक्ष्म या अमूर्त की ओर (From Concrete Instance to Abstract)
विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Particular to General)
उदाहरण से नियम की ओर (From Examples to rules)
ज्ञात से अज्ञात की ओर (From Known to Unknown)
आगमन विधि के गुण (Merits)
यह शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है। इससे नवीन ज्ञान को खोजने का अवसर मिलता है।
यह अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त करती है।
यह मनोवैज्ञानिक विधि है।
नियमों को स्वयं निकाल सकने पर छात्रों में आत्मविश्वास की भावना का विकास होता है।
यह विधि रटने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाती हैं। अत: छात्रों की स्मरणशक्ति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है।
यह विधि छोटे बच्चों के लिए अधिक उपयोगी और रोचक
आगमन विधि के निम्नलिखित दोष हैं-
इस विधि द्वारा सीखने में शक्ति तथा समय दोनों अधिक लगते हैंl
यह विधि छोटे बालकों के लिए उपयुक्त नहीं हैl इसका प्रयोग केवल बड़े और वह भी बुद्धिमान बालक ही कर सकता हैl सामान्य बुद्धि वाले बालक तो प्रायः प्रतिभाशाली बालकों द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों को आंख मिचकर स्वीकार कर लेते हैंl
आगमन विधि द्वारा सीखते हुए यदि बालक किसी अशुद्ध सामान्य नियम की ओर पहुंच जाए तो उन्हें सत्य की ओर लाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हैl
आगमन विधि द्वारा केवल सामान्य नियमों की खोज ही की जा सकती है l अतः इस विधि द्वारा प्रत्येक विषय की शिक्षा नहीं दी जा सकती है l
यह विधि स्वयं में अपूर्ण हैl इसके द्वारा खोजे हुए सत्य की परख करने के लिए निगमन विधि आवश्यक हैl
निगमन विधि (Deductive Method):
निगमनात्मक में पूर्व निर्णित सिद्धांत या सामान्य सत्य से तर्क द्वारा अज्ञात सत्य को प्रमाणित किया जाता है।
इसमें छात्र स्वयं नियम नहीं बनाते, बल्कि शिक्षक उन्हें पहले बने नियमों, उदाहरणों, प्रयोगों और अनुभवों आदि से अवगत करा देते हैं।
इसमें ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात सत्य का निगमन होता है।
निगमन विधि के शिक्षण सूत्र-
नियम से उदाहरण की ओर
सामान्य से विशिष्ट की ओर
सूक्ष्म से स्थूल की ओर
प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
अमूर्त से मूर्त की ओर चलती है।
इसमें ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात सत्य का निगमन होता है।
निगमन विधि के गुण Merits):
यह विधि कक्षा पद्धति के लिए सबसे अधिक उपयोगी है
बड़ी कक्षाओं में भी किसी प्रकरण के कठिन अंशों को पढ़ाने के लिए यह विधि सर्वोत्तम है।
कम समय में ही अधिक ज्ञान दिया जाता है।ज्ञान की प्राप्ति काफी तीव्र होती है।
बड़ी कक्षाओं में इस विधि का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि वे नियम को तुरंत समझ लेते हैं।
इस विधि में छात्र तथा शिक्षक दोनों को ही कम परिश्रम करना पड़ता है।
इस विधि से छात्रों की स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है।
निगमन प्रणाली के दोष-
निष्कर्ष वास्तविक से परे होते है
निष्कर्ष अव्यावहारिक
अर्थशास्त्र के पूर्ण विकास का असंभव होना
सार्वभौमिकता अभाव
स्थिर दृष्टिकोण
आगमन व निगमन विधियां एक दूसरे की पूरक विधियां हैं।
आगमन विधि शिक्षा प्रदान करने की एक उत्तम प्रणाली है।
निगमन विधि शिक्षा की उत्तम प्रणाली न होकर मात्र एक आदेश देने की प्रणाली नजर आती है।
यह विधि पूर्णतः मनोवैज्ञानिक है।
अमनोवैज्ञानिक है।
इस विधि में शिक्षा प्रदान करने की गति बहुत मंद होती है।
इस विधि में शिक्षा प्रदान करने की गति तीव्र मन्द होती है।
इस विधि से ग्रहण किया गया ज्ञान स्थायी होता है।
इस विधि से प्राप्त किया गया ज्ञान अस्थायी होता है।
इस विधि में विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ा जाता है।
इस विधि में सामान्य से विशिष्ट की ओर बढा जाता है।
बालक अनुसंधान के द्वारा नियमों का प्रतिपादन करते हैं।
प्रतिपादित सिद्धान्तों पर ही विद्यार्थियों को आश्रित रहना पड़ता है।
आत्मनिर्भरता विकसित होती है।
बालकों को दूसरों के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर ही निर्भर रहना होता है।
छोटे बालकों के लिए उपयोगी है।
बड़े छात्रों के लिए उपयोगी है।
इस विधि का प्रयोग करने के लिए प्रयोग से पूर्व अध्यापक को पर्याप्त तैयारी की आवश्यकता होती है।
इस विधि में तैयारी की अधिक आवश्यकता नहीं होती।
बालकों का मानसिक विकास करने में सहायक होती है।
बालकों का मानसिक विकास नहीं करती बल्कि उनमें अनुकरण की आदत डालती है।
इस विधि में अधिकांश कार्य छात्रों द्वारा स्वयं किया जाता है।
इसमें अधिकांश कार्य शिक्षकों को करना होता है।
यह विधि बालकों को स्वतन्त्रतापूर्वक सोचने के अवसर प्रदान करती है।
इस विधि में बालकों को तर्क एवं स्वतन्र रूप से सोचने के अवसर उपलब्ध नहीं होते।
Incorrect
Explanation:
******अधिगम के दो प्रकार आगमन एवं निगमन हैं
आगमन विधि (Inductive Method):
इस विधि में प्रत्यक्ष अनुभवों, उदाहरणों व प्रयोगों का अध्ययन कर नियम निकाले जाते हैं
ज्ञात तथ्यों के आधार पर उचित सझबुझ से निर्णय लिया जाता है।
इस विधि में शिक्षक बालकों के सामने पहले उन्हीं के अनुभव क्षेत्रों से विभिन्न उदाहरणों के संबंध में निरीक्षण, परीक्षण तथा ध्यानपूर्वक सोच-विचार करके सामान्य नियम अथवा सिद्धांत निकलवाता है।
इस प्रकार आगमन विधि में विशिष्ट उदाहरणों द्वारा बालकों को सामान्यीकरण अथवा सामान्य नियमों को निकलवाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता हैं।
आगमन विधि के शिक्षण सूत्र–
प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर (From Direct Instance to Indirect)
स्थूल या मूर्त से सूक्ष्म या अमूर्त की ओर (From Concrete Instance to Abstract)
विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Particular to General)
उदाहरण से नियम की ओर (From Examples to rules)
ज्ञात से अज्ञात की ओर (From Known to Unknown)
आगमन विधि के गुण (Merits)
यह शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है। इससे नवीन ज्ञान को खोजने का अवसर मिलता है।
यह अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त करती है।
यह मनोवैज्ञानिक विधि है।
नियमों को स्वयं निकाल सकने पर छात्रों में आत्मविश्वास की भावना का विकास होता है।
यह विधि रटने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाती हैं। अत: छात्रों की स्मरणशक्ति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है।
यह विधि छोटे बच्चों के लिए अधिक उपयोगी और रोचक
आगमन विधि के निम्नलिखित दोष हैं-
इस विधि द्वारा सीखने में शक्ति तथा समय दोनों अधिक लगते हैंl
यह विधि छोटे बालकों के लिए उपयुक्त नहीं हैl इसका प्रयोग केवल बड़े और वह भी बुद्धिमान बालक ही कर सकता हैl सामान्य बुद्धि वाले बालक तो प्रायः प्रतिभाशाली बालकों द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों को आंख मिचकर स्वीकार कर लेते हैंl
आगमन विधि द्वारा सीखते हुए यदि बालक किसी अशुद्ध सामान्य नियम की ओर पहुंच जाए तो उन्हें सत्य की ओर लाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हैl
आगमन विधि द्वारा केवल सामान्य नियमों की खोज ही की जा सकती है l अतः इस विधि द्वारा प्रत्येक विषय की शिक्षा नहीं दी जा सकती है l
यह विधि स्वयं में अपूर्ण हैl इसके द्वारा खोजे हुए सत्य की परख करने के लिए निगमन विधि आवश्यक हैl
निगमन विधि (Deductive Method):
निगमनात्मक में पूर्व निर्णित सिद्धांत या सामान्य सत्य से तर्क द्वारा अज्ञात सत्य को प्रमाणित किया जाता है।
इसमें छात्र स्वयं नियम नहीं बनाते, बल्कि शिक्षक उन्हें पहले बने नियमों, उदाहरणों, प्रयोगों और अनुभवों आदि से अवगत करा देते हैं।
इसमें ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात सत्य का निगमन होता है।
निगमन विधि के शिक्षण सूत्र-
नियम से उदाहरण की ओर
सामान्य से विशिष्ट की ओर
सूक्ष्म से स्थूल की ओर
प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
अमूर्त से मूर्त की ओर चलती है।
इसमें ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात सत्य का निगमन होता है।
निगमन विधि के गुण Merits):
यह विधि कक्षा पद्धति के लिए सबसे अधिक उपयोगी है
बड़ी कक्षाओं में भी किसी प्रकरण के कठिन अंशों को पढ़ाने के लिए यह विधि सर्वोत्तम है।
कम समय में ही अधिक ज्ञान दिया जाता है।ज्ञान की प्राप्ति काफी तीव्र होती है।
बड़ी कक्षाओं में इस विधि का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि वे नियम को तुरंत समझ लेते हैं।
इस विधि में छात्र तथा शिक्षक दोनों को ही कम परिश्रम करना पड़ता है।
इस विधि से छात्रों की स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है।
निगमन प्रणाली के दोष-
निष्कर्ष वास्तविक से परे होते है
निष्कर्ष अव्यावहारिक
अर्थशास्त्र के पूर्ण विकास का असंभव होना
सार्वभौमिकता अभाव
स्थिर दृष्टिकोण
आगमन व निगमन विधियां एक दूसरे की पूरक विधियां हैं।
आगमन विधि शिक्षा प्रदान करने की एक उत्तम प्रणाली है।
निगमन विधि शिक्षा की उत्तम प्रणाली न होकर मात्र एक आदेश देने की प्रणाली नजर आती है।
यह विधि पूर्णतः मनोवैज्ञानिक है।
अमनोवैज्ञानिक है।
इस विधि में शिक्षा प्रदान करने की गति बहुत मंद होती है।
इस विधि में शिक्षा प्रदान करने की गति तीव्र मन्द होती है।
इस विधि से ग्रहण किया गया ज्ञान स्थायी होता है।
इस विधि से प्राप्त किया गया ज्ञान अस्थायी होता है।
इस विधि में विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ा जाता है।
इस विधि में सामान्य से विशिष्ट की ओर बढा जाता है।
बालक अनुसंधान के द्वारा नियमों का प्रतिपादन करते हैं।
प्रतिपादित सिद्धान्तों पर ही विद्यार्थियों को आश्रित रहना पड़ता है।
आत्मनिर्भरता विकसित होती है।
बालकों को दूसरों के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर ही निर्भर रहना होता है।
छोटे बालकों के लिए उपयोगी है।
बड़े छात्रों के लिए उपयोगी है।
इस विधि का प्रयोग करने के लिए प्रयोग से पूर्व अध्यापक को पर्याप्त तैयारी की आवश्यकता होती है।
इस विधि में तैयारी की अधिक आवश्यकता नहीं होती।
बालकों का मानसिक विकास करने में सहायक होती है।
बालकों का मानसिक विकास नहीं करती बल्कि उनमें अनुकरण की आदत डालती है।
इस विधि में अधिकांश कार्य छात्रों द्वारा स्वयं किया जाता है।
इसमें अधिकांश कार्य शिक्षकों को करना होता है।
यह विधि बालकों को स्वतन्त्रतापूर्वक सोचने के अवसर प्रदान करती है।
इस विधि में बालकों को तर्क एवं स्वतन्र रूप से सोचने के अवसर उपलब्ध नहीं होते।
Unattempted
Explanation:
******अधिगम के दो प्रकार आगमन एवं निगमन हैं
आगमन विधि (Inductive Method):
इस विधि में प्रत्यक्ष अनुभवों, उदाहरणों व प्रयोगों का अध्ययन कर नियम निकाले जाते हैं
ज्ञात तथ्यों के आधार पर उचित सझबुझ से निर्णय लिया जाता है।
इस विधि में शिक्षक बालकों के सामने पहले उन्हीं के अनुभव क्षेत्रों से विभिन्न उदाहरणों के संबंध में निरीक्षण, परीक्षण तथा ध्यानपूर्वक सोच-विचार करके सामान्य नियम अथवा सिद्धांत निकलवाता है।
इस प्रकार आगमन विधि में विशिष्ट उदाहरणों द्वारा बालकों को सामान्यीकरण अथवा सामान्य नियमों को निकलवाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता हैं।
आगमन विधि के शिक्षण सूत्र–
प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर (From Direct Instance to Indirect)
स्थूल या मूर्त से सूक्ष्म या अमूर्त की ओर (From Concrete Instance to Abstract)
विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Particular to General)
उदाहरण से नियम की ओर (From Examples to rules)
ज्ञात से अज्ञात की ओर (From Known to Unknown)
आगमन विधि के गुण (Merits)
यह शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है। इससे नवीन ज्ञान को खोजने का अवसर मिलता है।
यह अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त करती है।
यह मनोवैज्ञानिक विधि है।
नियमों को स्वयं निकाल सकने पर छात्रों में आत्मविश्वास की भावना का विकास होता है।
यह विधि रटने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाती हैं। अत: छात्रों की स्मरणशक्ति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है।
यह विधि छोटे बच्चों के लिए अधिक उपयोगी और रोचक
आगमन विधि के निम्नलिखित दोष हैं-
इस विधि द्वारा सीखने में शक्ति तथा समय दोनों अधिक लगते हैंl
यह विधि छोटे बालकों के लिए उपयुक्त नहीं हैl इसका प्रयोग केवल बड़े और वह भी बुद्धिमान बालक ही कर सकता हैl सामान्य बुद्धि वाले बालक तो प्रायः प्रतिभाशाली बालकों द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों को आंख मिचकर स्वीकार कर लेते हैंl
आगमन विधि द्वारा सीखते हुए यदि बालक किसी अशुद्ध सामान्य नियम की ओर पहुंच जाए तो उन्हें सत्य की ओर लाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हैl
आगमन विधि द्वारा केवल सामान्य नियमों की खोज ही की जा सकती है l अतः इस विधि द्वारा प्रत्येक विषय की शिक्षा नहीं दी जा सकती है l
यह विधि स्वयं में अपूर्ण हैl इसके द्वारा खोजे हुए सत्य की परख करने के लिए निगमन विधि आवश्यक हैl
निगमन विधि (Deductive Method):
निगमनात्मक में पूर्व निर्णित सिद्धांत या सामान्य सत्य से तर्क द्वारा अज्ञात सत्य को प्रमाणित किया जाता है।
इसमें छात्र स्वयं नियम नहीं बनाते, बल्कि शिक्षक उन्हें पहले बने नियमों, उदाहरणों, प्रयोगों और अनुभवों आदि से अवगत करा देते हैं।
इसमें ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात सत्य का निगमन होता है।
निगमन विधि के शिक्षण सूत्र-
नियम से उदाहरण की ओर
सामान्य से विशिष्ट की ओर
सूक्ष्म से स्थूल की ओर
प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
अमूर्त से मूर्त की ओर चलती है।
इसमें ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात सत्य का निगमन होता है।
निगमन विधि के गुण Merits):
यह विधि कक्षा पद्धति के लिए सबसे अधिक उपयोगी है
बड़ी कक्षाओं में भी किसी प्रकरण के कठिन अंशों को पढ़ाने के लिए यह विधि सर्वोत्तम है।
कम समय में ही अधिक ज्ञान दिया जाता है।ज्ञान की प्राप्ति काफी तीव्र होती है।
बड़ी कक्षाओं में इस विधि का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि वे नियम को तुरंत समझ लेते हैं।
इस विधि में छात्र तथा शिक्षक दोनों को ही कम परिश्रम करना पड़ता है।
इस विधि से छात्रों की स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है।
निगमन प्रणाली के दोष-
निष्कर्ष वास्तविक से परे होते है
निष्कर्ष अव्यावहारिक
अर्थशास्त्र के पूर्ण विकास का असंभव होना
सार्वभौमिकता अभाव
स्थिर दृष्टिकोण
आगमन व निगमन विधियां एक दूसरे की पूरक विधियां हैं।
आगमन विधि शिक्षा प्रदान करने की एक उत्तम प्रणाली है।
निगमन विधि शिक्षा की उत्तम प्रणाली न होकर मात्र एक आदेश देने की प्रणाली नजर आती है।
यह विधि पूर्णतः मनोवैज्ञानिक है।
अमनोवैज्ञानिक है।
इस विधि में शिक्षा प्रदान करने की गति बहुत मंद होती है।
इस विधि में शिक्षा प्रदान करने की गति तीव्र मन्द होती है।
इस विधि से ग्रहण किया गया ज्ञान स्थायी होता है।
इस विधि से प्राप्त किया गया ज्ञान अस्थायी होता है।
इस विधि में विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ा जाता है।
इस विधि में सामान्य से विशिष्ट की ओर बढा जाता है।
बालक अनुसंधान के द्वारा नियमों का प्रतिपादन करते हैं।
प्रतिपादित सिद्धान्तों पर ही विद्यार्थियों को आश्रित रहना पड़ता है।
आत्मनिर्भरता विकसित होती है।
बालकों को दूसरों के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर ही निर्भर रहना होता है।
छोटे बालकों के लिए उपयोगी है।
बड़े छात्रों के लिए उपयोगी है।
इस विधि का प्रयोग करने के लिए प्रयोग से पूर्व अध्यापक को पर्याप्त तैयारी की आवश्यकता होती है।
इस विधि में तैयारी की अधिक आवश्यकता नहीं होती।
बालकों का मानसिक विकास करने में सहायक होती है।
बालकों का मानसिक विकास नहीं करती बल्कि उनमें अनुकरण की आदत डालती है।
इस विधि में अधिकांश कार्य छात्रों द्वारा स्वयं किया जाता है।
इसमें अधिकांश कार्य शिक्षकों को करना होता है।
यह विधि बालकों को स्वतन्त्रतापूर्वक सोचने के अवसर प्रदान करती है।
इस विधि में बालकों को तर्क एवं स्वतन्र रूप से सोचने के अवसर उपलब्ध नहीं होते।
Question 2 of 10
2. Question
1 points
आवश्यक रूप से सीखना जुड़ा हुआ है उद्दीपन प्रत्युत्तर से-
Correct
Explanation:
व्यवहारवादी उपागम का अर्थ (Meaning of Behavioural Approach):
व्यवहारवादी विचारधारा संगठन में प्रशासनिक व्यवहार के वास्तविक अध्ययन से संबंधित है ।
जिस प्रकार मानव संबंध उपागम सांगठनिक मानव का अध्ययन सामाजिक मानव के रूप में करता है, उसी प्रकार व्यवहारवाद सांगठनिक व्यवहार को सामाजिक व्यवहार के रूप में विश्लेषित करता है ।
आवश्यक रूप से सीखना व्यवहारवादी उपागम जुड़ा उद्दीपन प्रत्युत्तर से हुआ है
मनोविज्ञान में व्यवहारवाद (Behaviourism) की शुरुआत बीसवीं सदी के पहले दशक में जे.बी. वाटसन द्वारा की गई।
जे.बी. वाटसन ने मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा है।
व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक –पावलॉव, एडवर्ड गुथरी, क्लार्क हल, थॉर्नडाइक, स्पेंस (Spence), स्किनर और टॉलमैन आदि |
Incorrect
Explanation:
व्यवहारवादी उपागम का अर्थ (Meaning of Behavioural Approach):
व्यवहारवादी विचारधारा संगठन में प्रशासनिक व्यवहार के वास्तविक अध्ययन से संबंधित है ।
जिस प्रकार मानव संबंध उपागम सांगठनिक मानव का अध्ययन सामाजिक मानव के रूप में करता है, उसी प्रकार व्यवहारवाद सांगठनिक व्यवहार को सामाजिक व्यवहार के रूप में विश्लेषित करता है ।
आवश्यक रूप से सीखना व्यवहारवादी उपागम जुड़ा उद्दीपन प्रत्युत्तर से हुआ है
मनोविज्ञान में व्यवहारवाद (Behaviourism) की शुरुआत बीसवीं सदी के पहले दशक में जे.बी. वाटसन द्वारा की गई।
जे.बी. वाटसन ने मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा है।
व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक –पावलॉव, एडवर्ड गुथरी, क्लार्क हल, थॉर्नडाइक, स्पेंस (Spence), स्किनर और टॉलमैन आदि |
Unattempted
Explanation:
व्यवहारवादी उपागम का अर्थ (Meaning of Behavioural Approach):
व्यवहारवादी विचारधारा संगठन में प्रशासनिक व्यवहार के वास्तविक अध्ययन से संबंधित है ।
जिस प्रकार मानव संबंध उपागम सांगठनिक मानव का अध्ययन सामाजिक मानव के रूप में करता है, उसी प्रकार व्यवहारवाद सांगठनिक व्यवहार को सामाजिक व्यवहार के रूप में विश्लेषित करता है ।
आवश्यक रूप से सीखना व्यवहारवादी उपागम जुड़ा उद्दीपन प्रत्युत्तर से हुआ है
मनोविज्ञान में व्यवहारवाद (Behaviourism) की शुरुआत बीसवीं सदी के पहले दशक में जे.बी. वाटसन द्वारा की गई।
जे.बी. वाटसन ने मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा है।
व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक –पावलॉव, एडवर्ड गुथरी, क्लार्क हल, थॉर्नडाइक, स्पेंस (Spence), स्किनर और टॉलमैन आदि |
Question 3 of 10
3. Question
1 points
विद्यार्थी विशेष शिक्षण क्रिया में रुचि रखते हैं, यदि शिक्षक शिक्षण इकाई चयन करने तथा उसे संगठित इस प्रकार करे कि शिक्षार्थी स्वयं विकसित करेंगे:
Correct
Explanation:
शिक्षक शिक्षण-
बालकों की क्षमताओं, रुचियों तथा बुद्धि को ध्यान में रखते हुए मनोवैज्ञानिक सिद्धातों का निर्माण किया गया है।
अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षण कार्य को रुचिकर बनाने पर बल दिया जाता है।
बालक के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए शिक्षक शिक्षण को प्रभावशाली बनाने का प्रयास करते हैं।
बालक को कक्षा में निश्चित समय, निश्चित विधियों, निश्चित स्थान पर पूर्व नियोजित ढंग से शिक्षण दिया जाता है।
अध्यापक को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सक्रिय और रोचक बनाना चाहिए। ताकि विद्यार्थी सहज और जिज्ञासु हों।
शिक्षण कार्य के समय बच्चों को विभिन्न समस्याएं देकर उन्हें जूझने के अवसर देने चाहिए।
Incorrect
Explanation:
शिक्षक शिक्षण-
बालकों की क्षमताओं, रुचियों तथा बुद्धि को ध्यान में रखते हुए मनोवैज्ञानिक सिद्धातों का निर्माण किया गया है।
अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षण कार्य को रुचिकर बनाने पर बल दिया जाता है।
बालक के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए शिक्षक शिक्षण को प्रभावशाली बनाने का प्रयास करते हैं।
बालक को कक्षा में निश्चित समय, निश्चित विधियों, निश्चित स्थान पर पूर्व नियोजित ढंग से शिक्षण दिया जाता है।
अध्यापक को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सक्रिय और रोचक बनाना चाहिए। ताकि विद्यार्थी सहज और जिज्ञासु हों।
शिक्षण कार्य के समय बच्चों को विभिन्न समस्याएं देकर उन्हें जूझने के अवसर देने चाहिए।
Unattempted
Explanation:
शिक्षक शिक्षण-
बालकों की क्षमताओं, रुचियों तथा बुद्धि को ध्यान में रखते हुए मनोवैज्ञानिक सिद्धातों का निर्माण किया गया है।
अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षण कार्य को रुचिकर बनाने पर बल दिया जाता है।
बालक के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए शिक्षक शिक्षण को प्रभावशाली बनाने का प्रयास करते हैं।
बालक को कक्षा में निश्चित समय, निश्चित विधियों, निश्चित स्थान पर पूर्व नियोजित ढंग से शिक्षण दिया जाता है।
अध्यापक को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सक्रिय और रोचक बनाना चाहिए। ताकि विद्यार्थी सहज और जिज्ञासु हों।
शिक्षण कार्य के समय बच्चों को विभिन्न समस्याएं देकर उन्हें जूझने के अवसर देने चाहिए।
Question 4 of 10
4. Question
1 points
निर्मितिवाद के संप्रत्यय से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण कथन है
Correct
Explanation:
निर्मित वाद सिद्धांत– प्रवर्तक – जेरोम ब्रूनर
■निर्मित वाद की उत्पत्ति जीन पियाजे के संज्ञानात्मक क्षेत्र से मानी जाती है
■ निर्मितवाद से आशय बालक के लिए ऐसे अधिगम योग्य वातावरण का निर्माण करना जिसमें बालक अपनी विषयवस्तु सरलतापूर्वक सीख सके
■ब्रूनर के अनुसार निर्मितवाद में बालकों को किसी भी प्रकार की विषय वस्तु का शिक्षण करवाने से पूर्व विषय वस्तु के नियम, प्रकृति, उद्देश्य एवं उसके सिद्धांतों की सामान्य जानकारी बालकों को पूर्व में ही प्रदान कर देनी चाहिए
सामान्य जानकारी प्रदान करने पर-
1 सीखना सरल हो जाता है
2 रुचि उत्पन्न हो जाती है
3 स्थाई ज्ञान की प्राप्ति होती है
4 ज्ञान का स्थानांतरण संभव
निर्मितवाद की विशेषताएं-
छात्र केंद्रित प्रक्रिया है
बालक अपने पूर्व अनुभव से ज्ञान ग्रहण करता है
बालक स्वयं ज्ञान का सृजन करता है
छात्रों की सक्रियता व तत्परता पर बल
बालको मैं आपसी सहयोग व साझेदारी की भावना जागृत करता है
बालकों के समक्ष चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां उत्पन्न कर अधिगम करवाया जाता है
बालकों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है
निर्मितिवाद के संप्रत्यय से संबंधित वाद-विवाद और चर्चा द्वारा विचारों का निर्माण करना है।
Incorrect
Explanation:
निर्मित वाद सिद्धांत– प्रवर्तक – जेरोम ब्रूनर
■निर्मित वाद की उत्पत्ति जीन पियाजे के संज्ञानात्मक क्षेत्र से मानी जाती है
■ निर्मितवाद से आशय बालक के लिए ऐसे अधिगम योग्य वातावरण का निर्माण करना जिसमें बालक अपनी विषयवस्तु सरलतापूर्वक सीख सके
■ब्रूनर के अनुसार निर्मितवाद में बालकों को किसी भी प्रकार की विषय वस्तु का शिक्षण करवाने से पूर्व विषय वस्तु के नियम, प्रकृति, उद्देश्य एवं उसके सिद्धांतों की सामान्य जानकारी बालकों को पूर्व में ही प्रदान कर देनी चाहिए
सामान्य जानकारी प्रदान करने पर-
1 सीखना सरल हो जाता है
2 रुचि उत्पन्न हो जाती है
3 स्थाई ज्ञान की प्राप्ति होती है
4 ज्ञान का स्थानांतरण संभव
निर्मितवाद की विशेषताएं-
छात्र केंद्रित प्रक्रिया है
बालक अपने पूर्व अनुभव से ज्ञान ग्रहण करता है
बालक स्वयं ज्ञान का सृजन करता है
छात्रों की सक्रियता व तत्परता पर बल
बालको मैं आपसी सहयोग व साझेदारी की भावना जागृत करता है
बालकों के समक्ष चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां उत्पन्न कर अधिगम करवाया जाता है
बालकों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है
निर्मितिवाद के संप्रत्यय से संबंधित वाद-विवाद और चर्चा द्वारा विचारों का निर्माण करना है।
Unattempted
Explanation:
निर्मित वाद सिद्धांत– प्रवर्तक – जेरोम ब्रूनर
■निर्मित वाद की उत्पत्ति जीन पियाजे के संज्ञानात्मक क्षेत्र से मानी जाती है
■ निर्मितवाद से आशय बालक के लिए ऐसे अधिगम योग्य वातावरण का निर्माण करना जिसमें बालक अपनी विषयवस्तु सरलतापूर्वक सीख सके
■ब्रूनर के अनुसार निर्मितवाद में बालकों को किसी भी प्रकार की विषय वस्तु का शिक्षण करवाने से पूर्व विषय वस्तु के नियम, प्रकृति, उद्देश्य एवं उसके सिद्धांतों की सामान्य जानकारी बालकों को पूर्व में ही प्रदान कर देनी चाहिए
सामान्य जानकारी प्रदान करने पर-
1 सीखना सरल हो जाता है
2 रुचि उत्पन्न हो जाती है
3 स्थाई ज्ञान की प्राप्ति होती है
4 ज्ञान का स्थानांतरण संभव
निर्मितवाद की विशेषताएं-
छात्र केंद्रित प्रक्रिया है
बालक अपने पूर्व अनुभव से ज्ञान ग्रहण करता है
बालक स्वयं ज्ञान का सृजन करता है
छात्रों की सक्रियता व तत्परता पर बल
बालको मैं आपसी सहयोग व साझेदारी की भावना जागृत करता है
बालकों के समक्ष चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां उत्पन्न कर अधिगम करवाया जाता है
बालकों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है
निर्मितिवाद के संप्रत्यय से संबंधित वाद-विवाद और चर्चा द्वारा विचारों का निर्माण करना है।
Question 5 of 10
5. Question
1 points
निम्नलिखित में से कौनसा अधिगम के स्थानांतरण का प्रकार नहीं है?
Correct
Explanation:
जब व्यक्ति किसी कोशल तथा अर्जित ज्ञान का उपयोग किसी अन्य परिस्थिति में करता है तो इसे अधिगम स्थानांतरण (Transfer of Learning) कहते हैं।
अधिगम स्थानान्तरण या सीखने के अंतरण को प्रशिक्षण अंतरण अथवा प्रशिक्षण स्थानांतरण भी कहा जाता है।
अधिगम स्थानांतरण तीन प्रकार का होता है।
धनात्मक अथवा सकारात्मक अधिगम स्थानांतरण
द्विपक्षीय स्थानांतरण
क्षैतिज स्थानांतरण
ऊर्धव स्थानांतरण
एकपक्षीय स्थानांतरण
ऋणात्मक अथवा नकारात्मक अधिगम स्थानांतरण
शून्य स्थानांतरण
अधिगम स्थानान्तरण-
अधिगम या सीखने का स्थानांतरण एक सोद्देश्य क्रिया है।
इस क्रिया में पहले से सीखे हुए ज्ञान तथा कौशल का अन्य परिस्थितियों में उपयोग किया जाता है।
इस स्थानांतरण में समायोजन में सहायता मिलती है।
इससे सूझ या (Insight) का विकास होता है।
Incorrect
Explanation:
जब व्यक्ति किसी कोशल तथा अर्जित ज्ञान का उपयोग किसी अन्य परिस्थिति में करता है तो इसे अधिगम स्थानांतरण (Transfer of Learning) कहते हैं।
अधिगम स्थानान्तरण या सीखने के अंतरण को प्रशिक्षण अंतरण अथवा प्रशिक्षण स्थानांतरण भी कहा जाता है।
अधिगम स्थानांतरण तीन प्रकार का होता है।
धनात्मक अथवा सकारात्मक अधिगम स्थानांतरण
द्विपक्षीय स्थानांतरण
क्षैतिज स्थानांतरण
ऊर्धव स्थानांतरण
एकपक्षीय स्थानांतरण
ऋणात्मक अथवा नकारात्मक अधिगम स्थानांतरण
शून्य स्थानांतरण
अधिगम स्थानान्तरण-
अधिगम या सीखने का स्थानांतरण एक सोद्देश्य क्रिया है।
इस क्रिया में पहले से सीखे हुए ज्ञान तथा कौशल का अन्य परिस्थितियों में उपयोग किया जाता है।
इस स्थानांतरण में समायोजन में सहायता मिलती है।
इससे सूझ या (Insight) का विकास होता है।
Unattempted
Explanation:
जब व्यक्ति किसी कोशल तथा अर्जित ज्ञान का उपयोग किसी अन्य परिस्थिति में करता है तो इसे अधिगम स्थानांतरण (Transfer of Learning) कहते हैं।
अधिगम स्थानान्तरण या सीखने के अंतरण को प्रशिक्षण अंतरण अथवा प्रशिक्षण स्थानांतरण भी कहा जाता है।
अधिगम स्थानांतरण तीन प्रकार का होता है।
धनात्मक अथवा सकारात्मक अधिगम स्थानांतरण
द्विपक्षीय स्थानांतरण
क्षैतिज स्थानांतरण
ऊर्धव स्थानांतरण
एकपक्षीय स्थानांतरण
ऋणात्मक अथवा नकारात्मक अधिगम स्थानांतरण
शून्य स्थानांतरण
अधिगम स्थानान्तरण-
अधिगम या सीखने का स्थानांतरण एक सोद्देश्य क्रिया है।
इस क्रिया में पहले से सीखे हुए ज्ञान तथा कौशल का अन्य परिस्थितियों में उपयोग किया जाता है।
इस स्थानांतरण में समायोजन में सहायता मिलती है।
इससे सूझ या (Insight) का विकास होता है।
Question 6 of 10
6. Question
1 points
पुनर्बलन का सिद्धांत संबंधित है
Correct
Explanation:
पुनर्बलन –
जब कोई बालक क्रिया करता है तो क्रिया के दौरान उसमें जो अनुक्रिया में वृद्धि होती है, उसे ही पुनर्बलन कहते हैं।
पुनर्बलन के द्वारा बालक के कार्य करने की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है।
अध्यापक बालक को समय-समय पर पुनर्बलन देता रहता है।जिस कारण बालक जल्दी सीख लेता है
पुनर्बलन को अंग्रेजी में Reinforcement कहते हैं
सर्वप्रथम पुनर्बलन का सिद्धांत USA निवासी C.L. हल ने दिया था
C.L. हल ने अपनी पुस्तक Principles of Behavior में पुनर्बलन का सिद्धांत दिया।
पुनर्बलन का सिद्धांत आवश्यकता पर बल देता है.
सीखने के प्रबलन सिद्धान्त का प्रतिपादन क्लार्क एल. हल के द्वारा 1915 में किया गया।
व्यवहारवादी स्किनर ने प्रबलन या प्रबलता या पुनर्बलन सिद्धांत (Reinforcement Theory) को 1974 में प्रतिपादित किया।
स्किनर के प्रबलन या प्रबलता या पुनर्बलन सिद्धांत को अभिप्रेरणा का पुनर्बलन सिद्धांत (Reinforcement Theory D Motivation) या आकस्मिक सिद्धांत (Contingency Theory) के नाम से भी जाना जाता है
सकारात्मक पुनर्बलन
स्किनर के प्रयोग में चूहा बार-बार लीवर दबाने की अनुक्रिया करता है और भोजन प्राप्त कर लेता है। इसे सकारात्मक पुनर्बलन कहते हैं।
नकारात्मक पुनर्बलन
नकारात्मक पुनर्बलन द्वारा एक बिल्कुल भिन्न प्रकार से अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि की जाती है। मान लीजिए स्किनर बाक्स के अन्दर चूहे के पंजों पर प्रत्येक सेकेन्ड पर विद्युत आघात दिया जाता है। जैसे ही चूहा लीवर दबाता है विद्युत आघात दस सेकेन्ड के लिए रोक दिया जाता है।इससे चूहे की अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि हो जाती है। इस विधि को नकारात्मक पुनर्बलन कहा जाता है
पुनर्बलन का शैक्षिक महत्व:–
-बालक को प्रेरित किया जाता है।
-यह सिद्धांत पाठ्यक्रम बनाते समय विद्यार्थियों की आवश्यकता पर बल देता है।
-यह सिद्धांत कक्षा में पढ़ाए जाने वाले प्रकरणों के उद्देश्यों को स्पष्ट करने पर बल देता है।
-पुरष्कार की व्यवस्था को समझाता है।
पुनर्बलन सिद्धांत के उपनाम:–
-प्रबलन का सिद्धांत
-अंतरनाद न्यूनता का सिद्धांत
-सबलीकरण का सिद्धांत
-यथार्थ अधिगम का सिद्धांत
-सतत अधिगम का सिद्धांत
-क्रमबद्ध अधिगम का सिद्धांत
-चालक न्यूनता का सिद्धांत।
प्रबलन सिद्धान्त के उपनाम –
गणितीय सिद्धांत
परिकल्पित निगमन सिद्धांत
आवश्यकता अवकलन
जैवकीय अनुकूलन
उद्देश्य प्रवणता सिद्धांत
Incorrect
Explanation:
पुनर्बलन –
जब कोई बालक क्रिया करता है तो क्रिया के दौरान उसमें जो अनुक्रिया में वृद्धि होती है, उसे ही पुनर्बलन कहते हैं।
पुनर्बलन के द्वारा बालक के कार्य करने की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है।
अध्यापक बालक को समय-समय पर पुनर्बलन देता रहता है।जिस कारण बालक जल्दी सीख लेता है
पुनर्बलन को अंग्रेजी में Reinforcement कहते हैं
सर्वप्रथम पुनर्बलन का सिद्धांत USA निवासी C.L. हल ने दिया था
C.L. हल ने अपनी पुस्तक Principles of Behavior में पुनर्बलन का सिद्धांत दिया।
पुनर्बलन का सिद्धांत आवश्यकता पर बल देता है.
सीखने के प्रबलन सिद्धान्त का प्रतिपादन क्लार्क एल. हल के द्वारा 1915 में किया गया।
व्यवहारवादी स्किनर ने प्रबलन या प्रबलता या पुनर्बलन सिद्धांत (Reinforcement Theory) को 1974 में प्रतिपादित किया।
स्किनर के प्रबलन या प्रबलता या पुनर्बलन सिद्धांत को अभिप्रेरणा का पुनर्बलन सिद्धांत (Reinforcement Theory D Motivation) या आकस्मिक सिद्धांत (Contingency Theory) के नाम से भी जाना जाता है
सकारात्मक पुनर्बलन
स्किनर के प्रयोग में चूहा बार-बार लीवर दबाने की अनुक्रिया करता है और भोजन प्राप्त कर लेता है। इसे सकारात्मक पुनर्बलन कहते हैं।
नकारात्मक पुनर्बलन
नकारात्मक पुनर्बलन द्वारा एक बिल्कुल भिन्न प्रकार से अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि की जाती है। मान लीजिए स्किनर बाक्स के अन्दर चूहे के पंजों पर प्रत्येक सेकेन्ड पर विद्युत आघात दिया जाता है। जैसे ही चूहा लीवर दबाता है विद्युत आघात दस सेकेन्ड के लिए रोक दिया जाता है।इससे चूहे की अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि हो जाती है। इस विधि को नकारात्मक पुनर्बलन कहा जाता है
पुनर्बलन का शैक्षिक महत्व:–
-बालक को प्रेरित किया जाता है।
-यह सिद्धांत पाठ्यक्रम बनाते समय विद्यार्थियों की आवश्यकता पर बल देता है।
-यह सिद्धांत कक्षा में पढ़ाए जाने वाले प्रकरणों के उद्देश्यों को स्पष्ट करने पर बल देता है।
-पुरष्कार की व्यवस्था को समझाता है।
पुनर्बलन सिद्धांत के उपनाम:–
-प्रबलन का सिद्धांत
-अंतरनाद न्यूनता का सिद्धांत
-सबलीकरण का सिद्धांत
-यथार्थ अधिगम का सिद्धांत
-सतत अधिगम का सिद्धांत
-क्रमबद्ध अधिगम का सिद्धांत
-चालक न्यूनता का सिद्धांत।
प्रबलन सिद्धान्त के उपनाम –
गणितीय सिद्धांत
परिकल्पित निगमन सिद्धांत
आवश्यकता अवकलन
जैवकीय अनुकूलन
उद्देश्य प्रवणता सिद्धांत
Unattempted
Explanation:
पुनर्बलन –
जब कोई बालक क्रिया करता है तो क्रिया के दौरान उसमें जो अनुक्रिया में वृद्धि होती है, उसे ही पुनर्बलन कहते हैं।
पुनर्बलन के द्वारा बालक के कार्य करने की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है।
अध्यापक बालक को समय-समय पर पुनर्बलन देता रहता है।जिस कारण बालक जल्दी सीख लेता है
पुनर्बलन को अंग्रेजी में Reinforcement कहते हैं
सर्वप्रथम पुनर्बलन का सिद्धांत USA निवासी C.L. हल ने दिया था
C.L. हल ने अपनी पुस्तक Principles of Behavior में पुनर्बलन का सिद्धांत दिया।
पुनर्बलन का सिद्धांत आवश्यकता पर बल देता है.
सीखने के प्रबलन सिद्धान्त का प्रतिपादन क्लार्क एल. हल के द्वारा 1915 में किया गया।
व्यवहारवादी स्किनर ने प्रबलन या प्रबलता या पुनर्बलन सिद्धांत (Reinforcement Theory) को 1974 में प्रतिपादित किया।
स्किनर के प्रबलन या प्रबलता या पुनर्बलन सिद्धांत को अभिप्रेरणा का पुनर्बलन सिद्धांत (Reinforcement Theory D Motivation) या आकस्मिक सिद्धांत (Contingency Theory) के नाम से भी जाना जाता है
सकारात्मक पुनर्बलन
स्किनर के प्रयोग में चूहा बार-बार लीवर दबाने की अनुक्रिया करता है और भोजन प्राप्त कर लेता है। इसे सकारात्मक पुनर्बलन कहते हैं।
नकारात्मक पुनर्बलन
नकारात्मक पुनर्बलन द्वारा एक बिल्कुल भिन्न प्रकार से अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि की जाती है। मान लीजिए स्किनर बाक्स के अन्दर चूहे के पंजों पर प्रत्येक सेकेन्ड पर विद्युत आघात दिया जाता है। जैसे ही चूहा लीवर दबाता है विद्युत आघात दस सेकेन्ड के लिए रोक दिया जाता है।इससे चूहे की अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि हो जाती है। इस विधि को नकारात्मक पुनर्बलन कहा जाता है
पुनर्बलन का शैक्षिक महत्व:–
-बालक को प्रेरित किया जाता है।
-यह सिद्धांत पाठ्यक्रम बनाते समय विद्यार्थियों की आवश्यकता पर बल देता है।
-यह सिद्धांत कक्षा में पढ़ाए जाने वाले प्रकरणों के उद्देश्यों को स्पष्ट करने पर बल देता है।
-पुरष्कार की व्यवस्था को समझाता है।
पुनर्बलन सिद्धांत के उपनाम:–
-प्रबलन का सिद्धांत
-अंतरनाद न्यूनता का सिद्धांत
-सबलीकरण का सिद्धांत
-यथार्थ अधिगम का सिद्धांत
-सतत अधिगम का सिद्धांत
-क्रमबद्ध अधिगम का सिद्धांत
-चालक न्यूनता का सिद्धांत।
प्रबलन सिद्धान्त के उपनाम –
गणितीय सिद्धांत
परिकल्पित निगमन सिद्धांत
आवश्यकता अवकलन
जैवकीय अनुकूलन
उद्देश्य प्रवणता सिद्धांत
Question 7 of 10
7. Question
1 points
अंतर्दृष्टि अधिगम परिणाम है
Correct
Explanation:
कोहलर का सूझ अथवा अंतर्दृष्टि सिद्धांत
अधिगम सिद्धांतों में ‘क्षेत्र सिद्धांत’ के अंतर्गत कोहलर का सूझ सिद्धांत अथवा अंतर्दृष्टि सिद्धांत का वर्णन किया गया है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत की व्याख्या कोहलर ने अपनी पुस्तक ‘गेस्टाल्ट साइकोलॉजी’ (1959) में की है।
गेस्टाल्ट एक जर्मन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘समग्रता अथवा पूर्णता’ है। इसके प्रतिपादकों में मेक्स वरदाइमर में कूर्ट कोफ्का और वोल्फगेंग कोहलर उल्लेखनीय है.
इसे सीखने का ‘गेस्टाल्ट सिद्धांत’ भी कहा जाता है। गेस्टाल्ट सिद्धांत में आकार की पूर्णता को महत्व दिया जाता है उसके विभिन्न अंगों पर ध्यान नहीं दिया जाता है क्योंकि अंगों की अपेक्षा संपूर्ण हमेशा बड़ा होता है।
एंडरसन के अनुसार “अंतर्दृष्टि से तात्पर्य समस्या के हल को यकायक प्राप्त कर लेने से है” अर्थात अधिगमकर्ता प्रत्यक्षीकरण और विचारों को संगठित करके किसी समस्या का उपयुक्त समाधान प्रस्तुत करता है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत की विशेषताएँ-
समस्यात्मक स्थिति का सर्वेक्षण
समस्यात्मक स्थिति में हिचकिचाहट विश्राम एवं ध्यान का केंद्रीकरण करना
परिवर्तित अनुक्रियाओं द्वारा प्रयास करना
प्रथम अनुक्रिया उपयुक्त सिद्ध न होने पर अन्य अनुक्रिया करना
उद्देश्य लक्ष्य अथवा प्रेरणा की ओर बार-बार ध्यान केंद्रित करना
यकायक उपयुक्त अनुक्रिया अभिव्यक्त करना
अनुकूलित अनुक्रिया की पुनरावृत्ति करना
समस्या के आवश्यक पहलू पर ध्यान देने एवं अनावश्यक पहलुओं को त्याग देने की योग्यता आना
गेस्टाल्ट वादियों के अनुसार अंतर्दृष्टि का सिद्धांत 5 संप्रत्यों पर कार्य करता है-
लक्ष्य 2. बाधा 3.तनाव 4.संगठन 5.पुर्नसंगठन
अंतर्दृष्टि के सिद्धांत का शिक्षा में योगदान-
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों को संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का जनक भी कहा जाता है।
यह सिद्धांत सीखने में रटने के सिद्धांत अथवा आदत बनाकर सीखने के सिद्धांत का विरोध करता है।
यह समस्या समाधान विधि का आग्रह करता है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत द्वारा सीखने से छात्र की मानसिक शक्तियों एवं क्षमताओं का विकास होता है ।
तुलना करना तर्क करना आदि मानसिक शक्तियों के लिए सिद्धांत उपयोगी है।
क्रो एंड क्रो के अनुसार यह सिद्धांत किसी विषय वस्तु के उच्च ज्ञान की प्राप्ति में विशेष रूप से सहयोगी है।
यह सिद्धांत व्याकरण शिक्षा में विशेष रूप से उपयोगी है तथा अंक गणित और रेखा गणित की समस्याओं के हल में भी यह सिद्धांत अपनी उपयोगिता रखता है।
यह सिद्धांत ह्यूरिस्टिक पद्धति पर आधारित है अर्थात छात्र स्वयं खोज के मार्ग पर अग्रसर रहता है छात्र किसी नवीन परिस्थिति समायोजन करने तथा समस्या को सुलझाने में अंतरदृष्टि से काम लेता है।
Incorrect
Explanation:
कोहलर का सूझ अथवा अंतर्दृष्टि सिद्धांत
अधिगम सिद्धांतों में ‘क्षेत्र सिद्धांत’ के अंतर्गत कोहलर का सूझ सिद्धांत अथवा अंतर्दृष्टि सिद्धांत का वर्णन किया गया है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत की व्याख्या कोहलर ने अपनी पुस्तक ‘गेस्टाल्ट साइकोलॉजी’ (1959) में की है।
गेस्टाल्ट एक जर्मन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘समग्रता अथवा पूर्णता’ है। इसके प्रतिपादकों में मेक्स वरदाइमर में कूर्ट कोफ्का और वोल्फगेंग कोहलर उल्लेखनीय है.
इसे सीखने का ‘गेस्टाल्ट सिद्धांत’ भी कहा जाता है। गेस्टाल्ट सिद्धांत में आकार की पूर्णता को महत्व दिया जाता है उसके विभिन्न अंगों पर ध्यान नहीं दिया जाता है क्योंकि अंगों की अपेक्षा संपूर्ण हमेशा बड़ा होता है।
एंडरसन के अनुसार “अंतर्दृष्टि से तात्पर्य समस्या के हल को यकायक प्राप्त कर लेने से है” अर्थात अधिगमकर्ता प्रत्यक्षीकरण और विचारों को संगठित करके किसी समस्या का उपयुक्त समाधान प्रस्तुत करता है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत की विशेषताएँ-
समस्यात्मक स्थिति का सर्वेक्षण
समस्यात्मक स्थिति में हिचकिचाहट विश्राम एवं ध्यान का केंद्रीकरण करना
परिवर्तित अनुक्रियाओं द्वारा प्रयास करना
प्रथम अनुक्रिया उपयुक्त सिद्ध न होने पर अन्य अनुक्रिया करना
उद्देश्य लक्ष्य अथवा प्रेरणा की ओर बार-बार ध्यान केंद्रित करना
यकायक उपयुक्त अनुक्रिया अभिव्यक्त करना
अनुकूलित अनुक्रिया की पुनरावृत्ति करना
समस्या के आवश्यक पहलू पर ध्यान देने एवं अनावश्यक पहलुओं को त्याग देने की योग्यता आना
गेस्टाल्ट वादियों के अनुसार अंतर्दृष्टि का सिद्धांत 5 संप्रत्यों पर कार्य करता है-
लक्ष्य 2. बाधा 3.तनाव 4.संगठन 5.पुर्नसंगठन
अंतर्दृष्टि के सिद्धांत का शिक्षा में योगदान-
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों को संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का जनक भी कहा जाता है।
यह सिद्धांत सीखने में रटने के सिद्धांत अथवा आदत बनाकर सीखने के सिद्धांत का विरोध करता है।
यह समस्या समाधान विधि का आग्रह करता है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत द्वारा सीखने से छात्र की मानसिक शक्तियों एवं क्षमताओं का विकास होता है ।
तुलना करना तर्क करना आदि मानसिक शक्तियों के लिए सिद्धांत उपयोगी है।
क्रो एंड क्रो के अनुसार यह सिद्धांत किसी विषय वस्तु के उच्च ज्ञान की प्राप्ति में विशेष रूप से सहयोगी है।
यह सिद्धांत व्याकरण शिक्षा में विशेष रूप से उपयोगी है तथा अंक गणित और रेखा गणित की समस्याओं के हल में भी यह सिद्धांत अपनी उपयोगिता रखता है।
यह सिद्धांत ह्यूरिस्टिक पद्धति पर आधारित है अर्थात छात्र स्वयं खोज के मार्ग पर अग्रसर रहता है छात्र किसी नवीन परिस्थिति समायोजन करने तथा समस्या को सुलझाने में अंतरदृष्टि से काम लेता है।
Unattempted
Explanation:
कोहलर का सूझ अथवा अंतर्दृष्टि सिद्धांत
अधिगम सिद्धांतों में ‘क्षेत्र सिद्धांत’ के अंतर्गत कोहलर का सूझ सिद्धांत अथवा अंतर्दृष्टि सिद्धांत का वर्णन किया गया है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत की व्याख्या कोहलर ने अपनी पुस्तक ‘गेस्टाल्ट साइकोलॉजी’ (1959) में की है।
गेस्टाल्ट एक जर्मन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘समग्रता अथवा पूर्णता’ है। इसके प्रतिपादकों में मेक्स वरदाइमर में कूर्ट कोफ्का और वोल्फगेंग कोहलर उल्लेखनीय है.
इसे सीखने का ‘गेस्टाल्ट सिद्धांत’ भी कहा जाता है। गेस्टाल्ट सिद्धांत में आकार की पूर्णता को महत्व दिया जाता है उसके विभिन्न अंगों पर ध्यान नहीं दिया जाता है क्योंकि अंगों की अपेक्षा संपूर्ण हमेशा बड़ा होता है।
एंडरसन के अनुसार “अंतर्दृष्टि से तात्पर्य समस्या के हल को यकायक प्राप्त कर लेने से है” अर्थात अधिगमकर्ता प्रत्यक्षीकरण और विचारों को संगठित करके किसी समस्या का उपयुक्त समाधान प्रस्तुत करता है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत की विशेषताएँ-
समस्यात्मक स्थिति का सर्वेक्षण
समस्यात्मक स्थिति में हिचकिचाहट विश्राम एवं ध्यान का केंद्रीकरण करना
परिवर्तित अनुक्रियाओं द्वारा प्रयास करना
प्रथम अनुक्रिया उपयुक्त सिद्ध न होने पर अन्य अनुक्रिया करना
उद्देश्य लक्ष्य अथवा प्रेरणा की ओर बार-बार ध्यान केंद्रित करना
यकायक उपयुक्त अनुक्रिया अभिव्यक्त करना
अनुकूलित अनुक्रिया की पुनरावृत्ति करना
समस्या के आवश्यक पहलू पर ध्यान देने एवं अनावश्यक पहलुओं को त्याग देने की योग्यता आना
गेस्टाल्ट वादियों के अनुसार अंतर्दृष्टि का सिद्धांत 5 संप्रत्यों पर कार्य करता है-
लक्ष्य 2. बाधा 3.तनाव 4.संगठन 5.पुर्नसंगठन
अंतर्दृष्टि के सिद्धांत का शिक्षा में योगदान-
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों को संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का जनक भी कहा जाता है।
यह सिद्धांत सीखने में रटने के सिद्धांत अथवा आदत बनाकर सीखने के सिद्धांत का विरोध करता है।
यह समस्या समाधान विधि का आग्रह करता है।
अंतर्दृष्टि सिद्धांत द्वारा सीखने से छात्र की मानसिक शक्तियों एवं क्षमताओं का विकास होता है ।
तुलना करना तर्क करना आदि मानसिक शक्तियों के लिए सिद्धांत उपयोगी है।
क्रो एंड क्रो के अनुसार यह सिद्धांत किसी विषय वस्तु के उच्च ज्ञान की प्राप्ति में विशेष रूप से सहयोगी है।
यह सिद्धांत व्याकरण शिक्षा में विशेष रूप से उपयोगी है तथा अंक गणित और रेखा गणित की समस्याओं के हल में भी यह सिद्धांत अपनी उपयोगिता रखता है।
यह सिद्धांत ह्यूरिस्टिक पद्धति पर आधारित है अर्थात छात्र स्वयं खोज के मार्ग पर अग्रसर रहता है छात्र किसी नवीन परिस्थिति समायोजन करने तथा समस्या को सुलझाने में अंतरदृष्टि से काम लेता है।
Question 8 of 10
8. Question
1 points
निम्न में से संज्ञानात्मक विकास की कौनसी अवस्था का वर्णन ब्रूनर द्वारा नहीं किया गया है?
Correct
Explanation:
ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास को निम्नाकिंत तीन स्तरों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रतीकात्मक और कल्पनाशील चीजों के बारे में सोचता हैI
दृश्यप्रतिमा चरण (3-7 वर्ष)
ज्ञान कल्पना के माध्यम से आता है
मूर्त-संक्रियात्मक (7 से 12 वर्ष)
तार्किक
प्रतीकात्मक चरण
शब्दों और अन्य प्रतीकों के उपयोग
औपचारिक संक्रियात्मक (12 वर्ष से बड़े होने तक)
अमूर्त रूप से सोचने, मेटाकॉग्निशन और समस्या को हल करने की क्षमता
जेरोम ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत (Bruner’s Cognitive Development Theory) – ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास का मॉडल प्रस्तुत किया।
क्रियात्मक अवस्था-
क्रियात्मक अवस्था में बालक अपने वातावरण को क्रियाओं तथा क्रियाप्रणाली के द्वारा समझने का प्रयास करता है। हाथ-पैर चलाना, चलना, साइकिल चलाना आदि बालकों को उसके वातावरण के साथ प्रतिक्रिया करने में सहायक होते है। इस अवस्था में मानसिक प्रतिबिम्ब अथवा भाषा का महत्व नहीं होता है। मनोचालक ज्ञात महत्वपूर्ण होता है। किसी वस्तु को समझने के लिए बालक उसे पकङता है, मोङता है, काटता है, रगङता है, छूता है तथ पटकता है।
2. प्रतिबिम्बात्मक अवस्था-
प्रतिबिंबात्मक अथवा छायात्मक अवस्था में मानसिक प्रतिबिंबों के द्वारा सूचनायें व्यक्ति तक पहुँचती है। बालक चमक, शोर, गति तथा विविधता से प्रभावित होता है। बालकों में दृश्य स्मृति विकसित हो जाती है। ब्रूनर की प्रतिबिंबात्मक अवस्था प्याजे की पूर्ण संक्रियात्मक अवस्था से मिलती-जुलती है।
3. संकेतात्मक अवस्था-
संकेतात्मक अवस्था में बालक की क्रियात्मक तथा प्रत्यक्षीकृत समझ का प्रतिस्थापन संकेत प्रणाली से जाता है। बालक भाषा, तर्क तथा गणित सीख लेते है तथा उसका प्रयोग करते है। संकेत विभिन्न वस्तुओं को समझने तथा कार्यों को करने का संक्षिप्त तरीका है। संकेतों के प्रयोग से बालकों की संज्ञानात्मक कार्यक्षमता बढ़ जाती है।
जटिल अनुभव तथा ज्ञान को स्मरण रखना तथा अन्यों तक पहुँचना सरल हो जाता है। संकेतों के द्वारा सूचनाओं का संकलन तथा विश्लेषण करके व्यक्ति पूर्व कथन करने तथा परिकल्पनायें बनाने में समर्थ हो जाता है।
ब्रूनर के अनुसार बालक सर्वप्रथम क्रियात्मक अवस्था में संज्ञानात्मक चिन्तन करते है, तत्पश्चात् प्रतिबिंबात्मक अवस्था में ज्ञानात्मक चिन्तन करते है तथा सबसे अंत में संकेतात्मक अवस्था में ज्ञानात्मक चिन्तन करते है।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बालक प्रारंभ में क्रियाओं के द्वारा चिन्तन करते है। फिर मानसिक प्रतिबिंबों के द्वारा चिन्तन करते है तथा सबसे अंत में संकेतों, शब्दों का प्रयोग करके चिन्तन के ढंग को नहीं अपनाते है। संज्ञानात्मक विकास के ये क्रमबद्ध स्तर केवल यह बताते है कि अनुभव तथा आयु के साथ संकेतात्मक प्रणाली अधिक प्रबल, महत्वपूर्ण तथा उपयोगी होती जाती है। प्रौढ़ व्यक्ति भी समय-समय पर आवश्यकतानुसार क्रियात्मक अथवा प्रतिबिंबात्मक चिन्तन प्रणाली को अपनाते है।
ब्रूनर के सिद्धांत की विशेषताएं (Features of Bruner’s theory)
यह सिद्धांतों बालकों के पूर्व अनुभवों तथा नए विषयों से समन्वय स्थापित करने के लिए ‘अनुकूल वातावरण’ तैयार करने पर बल देता है।
यह सिद्धांत सीखने में पुनर्बलन पर जोर देता है।
इस सिद्धांत की मान्यता है की विषय वस्तु की संरचना किस प्रकार हो कि बच्चे सुगमता से सीख सकें।
इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षा बालक में व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों गुणों का विकास करती है।
शिक्षा में उपयोगिता
बालक की मानसिक शक्ति के अनुसार शिक्षण विधियों के चयन में।
बच्चों के स्तर के अनुसार शिक्षण योजना के नियोजन क्रियान्वयन एवं मूल्यांकन प्रक्रिया में आवश्यक संशोधन कर बालक का समुचित बौद्धिक विकास किया जा सकता है।
मानसिक स्तर के अनुसार पाठ्यक्रम के निर्माण में।
नए प्रकरणों को शुरू करने से पूर्व ज्ञान को लेकर शिक्षण योजना बनाने में
ब्रूनर ने दो प्रकार की सम्बद्धता पर बल दिया
(1) व्यक्तिगत सम्बद्धना (Personal Relevance)
(2) सामाजिक सम्वद्धता (Social Relevance)
Incorrect
Explanation:
ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास को निम्नाकिंत तीन स्तरों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रतीकात्मक और कल्पनाशील चीजों के बारे में सोचता हैI
दृश्यप्रतिमा चरण (3-7 वर्ष)
ज्ञान कल्पना के माध्यम से आता है
मूर्त-संक्रियात्मक (7 से 12 वर्ष)
तार्किक
प्रतीकात्मक चरण
शब्दों और अन्य प्रतीकों के उपयोग
औपचारिक संक्रियात्मक (12 वर्ष से बड़े होने तक)
अमूर्त रूप से सोचने, मेटाकॉग्निशन और समस्या को हल करने की क्षमता
जेरोम ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत (Bruner’s Cognitive Development Theory) – ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास का मॉडल प्रस्तुत किया।
क्रियात्मक अवस्था-
क्रियात्मक अवस्था में बालक अपने वातावरण को क्रियाओं तथा क्रियाप्रणाली के द्वारा समझने का प्रयास करता है। हाथ-पैर चलाना, चलना, साइकिल चलाना आदि बालकों को उसके वातावरण के साथ प्रतिक्रिया करने में सहायक होते है। इस अवस्था में मानसिक प्रतिबिम्ब अथवा भाषा का महत्व नहीं होता है। मनोचालक ज्ञात महत्वपूर्ण होता है। किसी वस्तु को समझने के लिए बालक उसे पकङता है, मोङता है, काटता है, रगङता है, छूता है तथ पटकता है।
2. प्रतिबिम्बात्मक अवस्था-
प्रतिबिंबात्मक अथवा छायात्मक अवस्था में मानसिक प्रतिबिंबों के द्वारा सूचनायें व्यक्ति तक पहुँचती है। बालक चमक, शोर, गति तथा विविधता से प्रभावित होता है। बालकों में दृश्य स्मृति विकसित हो जाती है। ब्रूनर की प्रतिबिंबात्मक अवस्था प्याजे की पूर्ण संक्रियात्मक अवस्था से मिलती-जुलती है।
3. संकेतात्मक अवस्था-
संकेतात्मक अवस्था में बालक की क्रियात्मक तथा प्रत्यक्षीकृत समझ का प्रतिस्थापन संकेत प्रणाली से जाता है। बालक भाषा, तर्क तथा गणित सीख लेते है तथा उसका प्रयोग करते है। संकेत विभिन्न वस्तुओं को समझने तथा कार्यों को करने का संक्षिप्त तरीका है। संकेतों के प्रयोग से बालकों की संज्ञानात्मक कार्यक्षमता बढ़ जाती है।
जटिल अनुभव तथा ज्ञान को स्मरण रखना तथा अन्यों तक पहुँचना सरल हो जाता है। संकेतों के द्वारा सूचनाओं का संकलन तथा विश्लेषण करके व्यक्ति पूर्व कथन करने तथा परिकल्पनायें बनाने में समर्थ हो जाता है।
ब्रूनर के अनुसार बालक सर्वप्रथम क्रियात्मक अवस्था में संज्ञानात्मक चिन्तन करते है, तत्पश्चात् प्रतिबिंबात्मक अवस्था में ज्ञानात्मक चिन्तन करते है तथा सबसे अंत में संकेतात्मक अवस्था में ज्ञानात्मक चिन्तन करते है।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बालक प्रारंभ में क्रियाओं के द्वारा चिन्तन करते है। फिर मानसिक प्रतिबिंबों के द्वारा चिन्तन करते है तथा सबसे अंत में संकेतों, शब्दों का प्रयोग करके चिन्तन के ढंग को नहीं अपनाते है। संज्ञानात्मक विकास के ये क्रमबद्ध स्तर केवल यह बताते है कि अनुभव तथा आयु के साथ संकेतात्मक प्रणाली अधिक प्रबल, महत्वपूर्ण तथा उपयोगी होती जाती है। प्रौढ़ व्यक्ति भी समय-समय पर आवश्यकतानुसार क्रियात्मक अथवा प्रतिबिंबात्मक चिन्तन प्रणाली को अपनाते है।
ब्रूनर के सिद्धांत की विशेषताएं (Features of Bruner’s theory)
यह सिद्धांतों बालकों के पूर्व अनुभवों तथा नए विषयों से समन्वय स्थापित करने के लिए ‘अनुकूल वातावरण’ तैयार करने पर बल देता है।
यह सिद्धांत सीखने में पुनर्बलन पर जोर देता है।
इस सिद्धांत की मान्यता है की विषय वस्तु की संरचना किस प्रकार हो कि बच्चे सुगमता से सीख सकें।
इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षा बालक में व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों गुणों का विकास करती है।
शिक्षा में उपयोगिता
बालक की मानसिक शक्ति के अनुसार शिक्षण विधियों के चयन में।
बच्चों के स्तर के अनुसार शिक्षण योजना के नियोजन क्रियान्वयन एवं मूल्यांकन प्रक्रिया में आवश्यक संशोधन कर बालक का समुचित बौद्धिक विकास किया जा सकता है।
मानसिक स्तर के अनुसार पाठ्यक्रम के निर्माण में।
नए प्रकरणों को शुरू करने से पूर्व ज्ञान को लेकर शिक्षण योजना बनाने में
ब्रूनर ने दो प्रकार की सम्बद्धता पर बल दिया
(1) व्यक्तिगत सम्बद्धना (Personal Relevance)
(2) सामाजिक सम्वद्धता (Social Relevance)
Unattempted
Explanation:
ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास को निम्नाकिंत तीन स्तरों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रतीकात्मक और कल्पनाशील चीजों के बारे में सोचता हैI
दृश्यप्रतिमा चरण (3-7 वर्ष)
ज्ञान कल्पना के माध्यम से आता है
मूर्त-संक्रियात्मक (7 से 12 वर्ष)
तार्किक
प्रतीकात्मक चरण
शब्दों और अन्य प्रतीकों के उपयोग
औपचारिक संक्रियात्मक (12 वर्ष से बड़े होने तक)
अमूर्त रूप से सोचने, मेटाकॉग्निशन और समस्या को हल करने की क्षमता
जेरोम ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत (Bruner’s Cognitive Development Theory) – ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास का मॉडल प्रस्तुत किया।
क्रियात्मक अवस्था-
क्रियात्मक अवस्था में बालक अपने वातावरण को क्रियाओं तथा क्रियाप्रणाली के द्वारा समझने का प्रयास करता है। हाथ-पैर चलाना, चलना, साइकिल चलाना आदि बालकों को उसके वातावरण के साथ प्रतिक्रिया करने में सहायक होते है। इस अवस्था में मानसिक प्रतिबिम्ब अथवा भाषा का महत्व नहीं होता है। मनोचालक ज्ञात महत्वपूर्ण होता है। किसी वस्तु को समझने के लिए बालक उसे पकङता है, मोङता है, काटता है, रगङता है, छूता है तथ पटकता है।
2. प्रतिबिम्बात्मक अवस्था-
प्रतिबिंबात्मक अथवा छायात्मक अवस्था में मानसिक प्रतिबिंबों के द्वारा सूचनायें व्यक्ति तक पहुँचती है। बालक चमक, शोर, गति तथा विविधता से प्रभावित होता है। बालकों में दृश्य स्मृति विकसित हो जाती है। ब्रूनर की प्रतिबिंबात्मक अवस्था प्याजे की पूर्ण संक्रियात्मक अवस्था से मिलती-जुलती है।
3. संकेतात्मक अवस्था-
संकेतात्मक अवस्था में बालक की क्रियात्मक तथा प्रत्यक्षीकृत समझ का प्रतिस्थापन संकेत प्रणाली से जाता है। बालक भाषा, तर्क तथा गणित सीख लेते है तथा उसका प्रयोग करते है। संकेत विभिन्न वस्तुओं को समझने तथा कार्यों को करने का संक्षिप्त तरीका है। संकेतों के प्रयोग से बालकों की संज्ञानात्मक कार्यक्षमता बढ़ जाती है।
जटिल अनुभव तथा ज्ञान को स्मरण रखना तथा अन्यों तक पहुँचना सरल हो जाता है। संकेतों के द्वारा सूचनाओं का संकलन तथा विश्लेषण करके व्यक्ति पूर्व कथन करने तथा परिकल्पनायें बनाने में समर्थ हो जाता है।
ब्रूनर के अनुसार बालक सर्वप्रथम क्रियात्मक अवस्था में संज्ञानात्मक चिन्तन करते है, तत्पश्चात् प्रतिबिंबात्मक अवस्था में ज्ञानात्मक चिन्तन करते है तथा सबसे अंत में संकेतात्मक अवस्था में ज्ञानात्मक चिन्तन करते है।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बालक प्रारंभ में क्रियाओं के द्वारा चिन्तन करते है। फिर मानसिक प्रतिबिंबों के द्वारा चिन्तन करते है तथा सबसे अंत में संकेतों, शब्दों का प्रयोग करके चिन्तन के ढंग को नहीं अपनाते है। संज्ञानात्मक विकास के ये क्रमबद्ध स्तर केवल यह बताते है कि अनुभव तथा आयु के साथ संकेतात्मक प्रणाली अधिक प्रबल, महत्वपूर्ण तथा उपयोगी होती जाती है। प्रौढ़ व्यक्ति भी समय-समय पर आवश्यकतानुसार क्रियात्मक अथवा प्रतिबिंबात्मक चिन्तन प्रणाली को अपनाते है।
ब्रूनर के सिद्धांत की विशेषताएं (Features of Bruner’s theory)
यह सिद्धांतों बालकों के पूर्व अनुभवों तथा नए विषयों से समन्वय स्थापित करने के लिए ‘अनुकूल वातावरण’ तैयार करने पर बल देता है।
यह सिद्धांत सीखने में पुनर्बलन पर जोर देता है।
इस सिद्धांत की मान्यता है की विषय वस्तु की संरचना किस प्रकार हो कि बच्चे सुगमता से सीख सकें।
इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षा बालक में व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों गुणों का विकास करती है।
शिक्षा में उपयोगिता
बालक की मानसिक शक्ति के अनुसार शिक्षण विधियों के चयन में।
बच्चों के स्तर के अनुसार शिक्षण योजना के नियोजन क्रियान्वयन एवं मूल्यांकन प्रक्रिया में आवश्यक संशोधन कर बालक का समुचित बौद्धिक विकास किया जा सकता है।
मानसिक स्तर के अनुसार पाठ्यक्रम के निर्माण में।
नए प्रकरणों को शुरू करने से पूर्व ज्ञान को लेकर शिक्षण योजना बनाने में
ब्रूनर ने दो प्रकार की सम्बद्धता पर बल दिया
(1) व्यक्तिगत सम्बद्धना (Personal Relevance)
(2) सामाजिक सम्वद्धता (Social Relevance)
Question 9 of 10
9. Question
1 points
छद्म परिपक्वता काल होता है
Correct
Explanation:
बाल्यावस्था –
बाल्यावस्था (Childhood) को शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना है।
बाल्यावस्था 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु के बीच की अवधि होती है।
रॉस ने बाल्यावस्था को मिय्या या छदम परिपक्वता का काल (Period of Pseudo-maturity) कहा है
कोल व ब्रूस ने इसे जीवन का अनोखा काल कहा है,
सिगमंड फ्रायड ने ‘बाल्यावस्था को काम की प्रसुप्तावस्था (Latency Period)’ कहा है।
ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा कि- ‘बाल्यावस्था एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोण, मूल्य एवं आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण हो जाता है।
यह अवस्था सीखने तथा समझने की सर्वोत्तम अवस्था है।
इस अवस्था को गंदी आयु एवं चुस्ती की आयु की संज्ञा भी दी गई है।
शिक्षाशास्त्रियों ने इस अवस्था को प्रारभिक विद्यालय की आयु की संज्ञा दी है
मनोवैज्ञानिकों ने अवस्था को को समूह की आयु (Peer Age) कहा है।
बाल्यावस्था चुस्ती फुर्ती की आयु है,
इस अवस्था के बच्चों में बिना उद्देश्य घूमने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
बाल्यावस्था नए कौशलों व क्षमताओं के विकास का स्वर्णिम काल है।
इस अवस्था को निर्माणकारी काल कहा जाता है,
बाल्यावस्था की विशेषताएं (Features of Childhood) –
बाल्यावस्था में बच्चे बहुत ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं।
बच्चों में प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति विकसित होती है।
सामाजिकता व नैतिक गुणों का अधिकतम विकास होता है
इस अवस्था में बच्चों में मित्र बनाने की प्रबल इच्छा होती है
रचनात्मक कार्यों में रुचि, अनुकरण की प्रवृत्ति, मानसिक योग्यताओं में वृद्धि, संचय की प्रवृत्ति, आत्मनिर्भरता, सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता, बहिर्मुखी व्यक्तित्व, सामूहिक खेलों में विशेष रुचि, सुप्त काम प्रवृत्ति, यथार्थ जगत से संबंध आदि विशेषताएं है।
छद्म परिपक्वता काल
Incorrect
Explanation:
बाल्यावस्था –
बाल्यावस्था (Childhood) को शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना है।
बाल्यावस्था 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु के बीच की अवधि होती है।
रॉस ने बाल्यावस्था को मिय्या या छदम परिपक्वता का काल (Period of Pseudo-maturity) कहा है
कोल व ब्रूस ने इसे जीवन का अनोखा काल कहा है,
सिगमंड फ्रायड ने ‘बाल्यावस्था को काम की प्रसुप्तावस्था (Latency Period)’ कहा है।
ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा कि- ‘बाल्यावस्था एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोण, मूल्य एवं आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण हो जाता है।
यह अवस्था सीखने तथा समझने की सर्वोत्तम अवस्था है।
इस अवस्था को गंदी आयु एवं चुस्ती की आयु की संज्ञा भी दी गई है।
शिक्षाशास्त्रियों ने इस अवस्था को प्रारभिक विद्यालय की आयु की संज्ञा दी है
मनोवैज्ञानिकों ने अवस्था को को समूह की आयु (Peer Age) कहा है।
बाल्यावस्था चुस्ती फुर्ती की आयु है,
इस अवस्था के बच्चों में बिना उद्देश्य घूमने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
बाल्यावस्था नए कौशलों व क्षमताओं के विकास का स्वर्णिम काल है।
इस अवस्था को निर्माणकारी काल कहा जाता है,
बाल्यावस्था की विशेषताएं (Features of Childhood) –
बाल्यावस्था में बच्चे बहुत ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं।
बच्चों में प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति विकसित होती है।
सामाजिकता व नैतिक गुणों का अधिकतम विकास होता है
इस अवस्था में बच्चों में मित्र बनाने की प्रबल इच्छा होती है
रचनात्मक कार्यों में रुचि, अनुकरण की प्रवृत्ति, मानसिक योग्यताओं में वृद्धि, संचय की प्रवृत्ति, आत्मनिर्भरता, सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता, बहिर्मुखी व्यक्तित्व, सामूहिक खेलों में विशेष रुचि, सुप्त काम प्रवृत्ति, यथार्थ जगत से संबंध आदि विशेषताएं है।
छद्म परिपक्वता काल
Unattempted
Explanation:
बाल्यावस्था –
बाल्यावस्था (Childhood) को शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना है।
बाल्यावस्था 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु के बीच की अवधि होती है।
रॉस ने बाल्यावस्था को मिय्या या छदम परिपक्वता का काल (Period of Pseudo-maturity) कहा है
कोल व ब्रूस ने इसे जीवन का अनोखा काल कहा है,
सिगमंड फ्रायड ने ‘बाल्यावस्था को काम की प्रसुप्तावस्था (Latency Period)’ कहा है।
ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा कि- ‘बाल्यावस्था एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोण, मूल्य एवं आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण हो जाता है।
यह अवस्था सीखने तथा समझने की सर्वोत्तम अवस्था है।
इस अवस्था को गंदी आयु एवं चुस्ती की आयु की संज्ञा भी दी गई है।
शिक्षाशास्त्रियों ने इस अवस्था को प्रारभिक विद्यालय की आयु की संज्ञा दी है
मनोवैज्ञानिकों ने अवस्था को को समूह की आयु (Peer Age) कहा है।
बाल्यावस्था चुस्ती फुर्ती की आयु है,
इस अवस्था के बच्चों में बिना उद्देश्य घूमने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
बाल्यावस्था नए कौशलों व क्षमताओं के विकास का स्वर्णिम काल है।
इस अवस्था को निर्माणकारी काल कहा जाता है,
बाल्यावस्था की विशेषताएं (Features of Childhood) –
बाल्यावस्था में बच्चे बहुत ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं।
बच्चों में प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति विकसित होती है।
सामाजिकता व नैतिक गुणों का अधिकतम विकास होता है
इस अवस्था में बच्चों में मित्र बनाने की प्रबल इच्छा होती है
रचनात्मक कार्यों में रुचि, अनुकरण की प्रवृत्ति, मानसिक योग्यताओं में वृद्धि, संचय की प्रवृत्ति, आत्मनिर्भरता, सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता, बहिर्मुखी व्यक्तित्व, सामूहिक खेलों में विशेष रुचि, सुप्त काम प्रवृत्ति, यथार्थ जगत से संबंध आदि विशेषताएं है।
छद्म परिपक्वता काल
Question 10 of 10
10. Question
1 points
अधिगम एक प्रक्रिया है:
Correct
Explanation:
अधिगम की महत्वपूर्ण विशेषताएं –
अधिगम जटिल है और इसमें सभी प्रकार के ज्ञान, कौशल, अंतर्दृष्टि, मूल्य, दृष्टिकोण और आदतें शामिल हैं।
अधिगम की योजना बनाई या अनियोजित हो सकती है।
किसी भी अनुभव, विफलता, सफलता और इसी के बीच कुछ भी से अधिगम को प्रेरित किया जा सकता है।
अधिगम सक्रिय होने के साथ-साथ निष्क्रिय भी हो सकता है। सीखने के लिए कक्षा में छात्रों की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता होती है। वे जितना अधिक शामिल होंगे, उनकी एकाग्रता की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
अधिगम व्यक्तिगत है और सामूहिक रूप से समूहों में भी उत्पन्न किया जा सकता है।
अधिगम एक प्रक्रिया और परिणाम दोनों है।
अधिगम वृद्धिशील हो सकता है, जो पहले सीखा जा चुका है या रूपांतरित हो गया है, को संचयी रूप से जोड़ना।
अधिगम के परिणाम अवांछनीय होने के साथ-साथ वांछनीय भी हो सकते हैं।
अधिगम का एक नैतिक आयाम है।
अधिगम आजीवन है।
अधिगम को शिक्षा मनोविज्ञान का दिल (Heart of Psychology) कहा गया है
सीखने की प्रक्रिया में दो प्रमुख कारण हैं-
पहला, परिपक्वता Maturity)
दूसरा, अनुभव (Experience)
सीखने की प्रक्रिया में परिपक्वता का प्रमुख स्थान है। क्योकि परिपक्वता का विकास आयु के साथ होता है।
Incorrect
Explanation:
अधिगम की महत्वपूर्ण विशेषताएं –
अधिगम जटिल है और इसमें सभी प्रकार के ज्ञान, कौशल, अंतर्दृष्टि, मूल्य, दृष्टिकोण और आदतें शामिल हैं।
अधिगम की योजना बनाई या अनियोजित हो सकती है।
किसी भी अनुभव, विफलता, सफलता और इसी के बीच कुछ भी से अधिगम को प्रेरित किया जा सकता है।
अधिगम सक्रिय होने के साथ-साथ निष्क्रिय भी हो सकता है। सीखने के लिए कक्षा में छात्रों की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता होती है। वे जितना अधिक शामिल होंगे, उनकी एकाग्रता की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
अधिगम व्यक्तिगत है और सामूहिक रूप से समूहों में भी उत्पन्न किया जा सकता है।
अधिगम एक प्रक्रिया और परिणाम दोनों है।
अधिगम वृद्धिशील हो सकता है, जो पहले सीखा जा चुका है या रूपांतरित हो गया है, को संचयी रूप से जोड़ना।
अधिगम के परिणाम अवांछनीय होने के साथ-साथ वांछनीय भी हो सकते हैं।
अधिगम का एक नैतिक आयाम है।
अधिगम आजीवन है।
अधिगम को शिक्षा मनोविज्ञान का दिल (Heart of Psychology) कहा गया है
सीखने की प्रक्रिया में दो प्रमुख कारण हैं-
पहला, परिपक्वता Maturity)
दूसरा, अनुभव (Experience)
सीखने की प्रक्रिया में परिपक्वता का प्रमुख स्थान है। क्योकि परिपक्वता का विकास आयु के साथ होता है।
Unattempted
Explanation:
अधिगम की महत्वपूर्ण विशेषताएं –
अधिगम जटिल है और इसमें सभी प्रकार के ज्ञान, कौशल, अंतर्दृष्टि, मूल्य, दृष्टिकोण और आदतें शामिल हैं।
अधिगम की योजना बनाई या अनियोजित हो सकती है।
किसी भी अनुभव, विफलता, सफलता और इसी के बीच कुछ भी से अधिगम को प्रेरित किया जा सकता है।
अधिगम सक्रिय होने के साथ-साथ निष्क्रिय भी हो सकता है। सीखने के लिए कक्षा में छात्रों की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता होती है। वे जितना अधिक शामिल होंगे, उनकी एकाग्रता की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
अधिगम व्यक्तिगत है और सामूहिक रूप से समूहों में भी उत्पन्न किया जा सकता है।
अधिगम एक प्रक्रिया और परिणाम दोनों है।
अधिगम वृद्धिशील हो सकता है, जो पहले सीखा जा चुका है या रूपांतरित हो गया है, को संचयी रूप से जोड़ना।
अधिगम के परिणाम अवांछनीय होने के साथ-साथ वांछनीय भी हो सकते हैं।
अधिगम का एक नैतिक आयाम है।
अधिगम आजीवन है।
अधिगम को शिक्षा मनोविज्ञान का दिल (Heart of Psychology) कहा गया है
सीखने की प्रक्रिया में दो प्रमुख कारण हैं-
पहला, परिपक्वता Maturity)
दूसरा, अनुभव (Experience)
सीखने की प्रक्रिया में परिपक्वता का प्रमुख स्थान है। क्योकि परिपक्वता का विकास आयु के साथ होता है।